एक रंगीन दुनिया —


ये जो रंगीन दुनिया है,
वो रंगों से नहीं,
खून, ख़्वाब और ख़ामोशी से बनी है।
यहाँ हँसी भी बिकती है
और आंसू भी,
बस दाम चाहिए—
इंसानियत नहीं।

मैंने देखा है एक आदमी को
जो अपनी मजूरी से
एक सपना सिल रहा था—
पर सपना भी अब "बाजार-भाव" माँगता है।
गरीब की नींद को अब बिचौलिये चुरा ले जाते हैं,
और अमीर की ऊब,
शराब में डूब कर इत्र बन जाती है।

जहाँ सरकारें
शब्दों की जुगलबंदी करती हैं,
और भूख की चीखें
अख़बारों के बीच दब जाती हैं—
वहाँ कविता क्या करेगी?
वो भी शायद किसी मंत्री की मेज़ पर
सजावट बनकर रह जाएगी।



यहाँ हर गरीब
अपने ही मलबे में दबा
एक अधूरा घोषणापत्र है।
उसके हाथ, जिनसे कभी क्रांति उठती थी—
अब थामे हैं भीख की कोई पुरानी फ़ाइल।

बेजुबान शरीर बिकते हैं,
पर आत्मा तो कब की दरक चुकी,
सिर्फ़ मज़दूर के पसीने में
अब कोई महक नहीं रही।
बस बदबू है—
सिस्टम की, व्यवस्था की,
और हमारी ख़ामोशी की।

अमीर सब कुछ खरीदता है—
संसद, सपने और समय,
और गरीब?
वो अब भगवान से भी नहीं मांगता,
क्योंकि उसने देख लिया है
कि ईश्वर भी
मुनाफ़े में साझेदार है।

यह जो दुनिया रंगीन है,
वो असल में एक बुझा हुआ कोलाज है
जहाँ रंगों की जगह राख है,
और हर चित्र का शीर्षक एक ही है—
"अभी और गिरना बाकी है"।



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