कविता "संघर्ष की लकीर"

 मैं संघर्ष की एक लकीर खिंच रहा हूं 

उसे प्रतिदिन पानी से सिंच रहा हूं 

 मेरा मन तो समुद्री सा शांत है 

लगता है उन लहरों को कोई चांद अपनी और खिंच रहा है 

मेरी खिंची गई लकीर 

अब एक खड्डा बन गई है 

सब एक तरफा हो रहें है

और मैं फिर से उस खड्डे में संघर्ष के बीज़ बो रहा हूं 

मेरे संघर्ष के बीज़ करुणा बन कर उभर आयेंगे 

जो संघर्ष की क्रांति लिखना चाहते हैं 

और उन्हें अपने लहू से सींचना चाहते हैं 

उन्हें प्रेम का एक और पाठ सिखाएँगे 

-अरुण चमियाल


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